शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

नमस्कार। पिछले महीने मैंने ५० -५० पर मैंने चर्चा किया था। हम सब लोगों का किसमत ५० -५० होता है। जब सहायक होता है हम भूल जाते हैं कि किसमत साथ नहीं भी दे सकता था। प्रश्न यह होता है कि इस सन्दर्भ में इंसान क्या कर सकता है?
मैं उदाहरण स्वरुप इस साल दुबई में आयोजित एशिया कप क्रिकेट के विषय में चर्चा करूँगा। दो मैचों के विषय में बातचीत करूँगा -भारत बनाम अफगानिस्तान और फाइनल में भारत बनाम बांगलादेश। दोनों मैचों में कई आंकड़ें एक जैसे थे और एक महत्वपूर्ण फर्क था। दोनों मैच में भारत अपने प्रतिद्वंदी से क्रिकेट के विश्व रैंक में बहुत आगे था। दोनों मैच में प्रतिद्वंदी टीम ने पहले बल्लेबाज़ी की। और दोनों टीम ने ऐसा कोई स्कोर का टारगेट नहीं खड़ा किया जो की भारत के लिए मुश्किल हो। फर्क इतना था कि अफगानिस्तान के खिलाफ भारत ने अधिकतर सीनियर खिलाड़ी और कप्तान को विश्राम दिया। परन्तु फाइनल में पूरी टीम बांगलादेश के विरुद्ध मैदान में मुकाबला कर रही थी।
अफगानिस्तान का मैच टाई हो गया -यानि दोनों टीम के स्कोर बराबर थे ,मैच के अंत में। और इस मैच में करीब दो सालों के बाद भारत के सबसे सफल कप्तान टीम का नेतृत्व कर रहे थे। जिनके विषय में कई बार कहा जाता था कि वह सौभाग्य का सबसे प्यारा सुपुत्र है। हमारे पहले विश्व कप विजेता अधिनायक ने भारत के पहले टी -२० विश्व कप विजय के बाद मजाक में कहा था -मैंने भी १९८६ में शारजाह में आयोजित क्रिकेट टूर्नामेंट के फाइनल में पाकिस्तान के विरुद्ध आखरी ओवर एक शर्मा को डालने के लिए दिया था जहाँ आखरी गेंद पर पाकिस्तान के बल्लेबाज़ ने छक्का मारा था और आज इस टी -२० फाइनल में पाकिस्तान के विरुद्ध आखरी ओवर भी एक शर्मा ने डाला। आज के कप्तान खुश किस्मत हैं कि पाकिस्तान का बल्लेबाज़ छक्का मारने के प्रयास में भारतीय खिलाड़ी को कैच दे डाला। -तो क्या हमारे क्रिकेट के इतिहास के सबसे सफल कप्तान केवल अपनी खुश -किस्मती के कारन सफल थे ? उन्हें कप्तान 'कूल ' का विशेषण क्यों दिया गया था ? कठिन परिस्थितिओं में वह विचलित क्यों नहीं होते थे ? हार या जीत हो मैच के अंत में वह मीडिया के सामने सदा मुस्कुराते हुए क्यों नज़र आते थे ? मेरा विश्लेषण उनके विषय में एक ही सिद्धांत की ओर ले जाता है -हमारे कप्तान कूल हारने से कभी नहीं डरते थे। उन्हें पता है कि हार -जीत खेल का एक अभिन्न अंग है। इसी लिए ना ही जीतने के बाद उन्हें किसी ने जरूरत से ज़्यादा सेलिब्रेट करते हुए देखा है ,ना ही बुरी तरह हारने के बाद उनके चेहरे पर मायूसी देखी है। अगर आपने गौर किया होगा हमारे कप्तान कूल विश्व कप जीतने के बाद टीम के हाथ में ट्रॉफी सौंप कर गायब से हो गए ! इस बार भी उन्होंने अफगानिस्तान की भरपूर प्रशंसा की उनके उमदा प्रयास के लिए। अगर भारत यह मैच हार भी जाता हमारा कप्तान विचलित नहीं होता। क्यूँकि उन्होंने ५० -५० के मूल चिंता को अपना लिया है।
अब चर्चा करते हैं फाइनल के विषय में। जब भारत ने अपनी पारी शुरू की बांगलादेश के विरुद्ध भारत को जीत के लिए प्रति ओवर पाँच रन से कम की गति से रन बटोरने थे। जो कि आज के टी -२० के युग में इस भारतीय टीम के लिए बाँये हात का खेल था। परन्तु बीच में भारत की पारी लरखरा गयी और अंत में भारत ने आखरी गेंद पर विजय हासिल किया। भारत के कप्तान ने राहत की साँस ली होगी। परन्तु भारत अंत में सफल क्यों हुआ ?क्या केवल भाग्य ने साथ निभाया ? जरूर निभाया।  परन्तु क्या भाग्य साथ निभा सकता अगर एक बल्लेबाज़ जो कि चोट के कारन पारी के बीच में मैदान छोर कर चला गया था , वापस अपने चोट के बावजूद वापस नहीं आ जाता अपने टीम की ज़रुरत के लिए ? हो सकता है कि इस कारन इस खिलाड़ी को पूरी तरह फिट होने में कहीं अधिक समय लग जाए। अगर यह बात सच हो जाए तो इस खिलाड़ी अपने भाग्य को कोसेगा या फाइनल जीतने के लिए धन्यवाद करेगा ? इस उदाहरण से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हमें इंसान की हैसियत से तब तक बिना निराश हुए मेहनत करते रहना चाहिए। भाग्य को फिर हम हमें सहायता करने का मौका दे रहे हैं। नहीं तो भाग्य भी क्या करेगा।
कल हमारे राष्ट्र पिता का जन्मदिन है। आज हम एक स्वतंत्र देश के नागरिक हैं। इसके लिए उनका और अनेक स्वतंत्रता सेनानी को सश्रद्ध प्रणाम।  उनके तरीके अलग हो सकते थे , लेकिन गोल एक ही था। और उन्होंने ५० -५० पर शायद भरोसा किया होगा। दशहरा का महीना।  आप सब को अग्रिम बधाई। खुश रहें। 

सोमवार, 3 सितंबर 2018

नमस्कार। इस वक़्त अख़बारों में चर्चा हो रही है हमारे देश की सफलता एशियाई खेलों में जो कि इंडोनेशिया में संपन्न हुआ। इतिहास में इस साल भारत ने अपने लिए सर्वाधिक पदक जीता। बेहद निराशा हुई जब पुरुषों और महिलाओं की हॉकी टीम पराजित हो गई। जब कि उन्हें मालूम था कि एशियाई खेल में स्वर्ण पदक हासिल करने पर ओलिंपिक खेलों में स्थान सुनिश्चित था। यह क्या भाग्य का विषय है। या नहीं।
इस सन्दर्भ में मैं आज थोड़ा चर्चा करना चाहता हूँ। इसी एशियाई खेलों में पहली बार ताश का खेल 'ब्रिज ' को अन्तर्युक्त किया गया। भारत के पुरुष और मिक्स्ड टीम्स ने ब्रिज में कांस्य पदक हासिल किया।  हमारे माननीय प्रधान मंत्री ने भी ट्विटर के माध्यम से टीम को मुबारकबाद किया। मैं भी ब्रिज में बेहद दिलचस्पी रखता हूँ। मेरे ब्रिज के कोच श्री सुमन सेनगुप्ता जी ने भाग्य के विषय में उम्दा एक बात कही है जो की मैं आपके लिए पेश करना चाहता हूँ। उनका कहना है कि भाग्य या किस्मत का साथ निभाना या ना निभाना हमेशा 50 -50 होता है। दरअसल जब किस्मत साथ होता है तब हम दूसरी संभावना (किस्मत साथ नहीं भी दे सकता था ) को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। परन्तु जब भाग्य साथ नहीं देता है तो हम अपने भाग्य को कोसते हैं और दूसरों के अच्छे भाग्य को ईर्ष्या करते हैं। मुझे यह अंदाज़ भाग्य का ,बेहतरीन लगा है और मैंने उस वक़्त से इसको अपना लिया है। इस दृष्टिकोण का सबसे महत्वपूर्ण विषय है ५०-५० का एहसास जो कि 'सहायक ' भाग्य के समय याद दिलाता है कि भाग्य सहायक नहीं भी हो सकता है। और भाग्य सहायक नहीं तो कभी भी सहायक हो सकता है। एक ही सिक्के के दो पहलु। अगर शोले फिल्म का खोटा सिक्का (याद है आपको ) ना हो तो सम्भावना वही ५० -५० होता है।
इस संदर्भ में एक छोटी सी कहानी आपके लिए पेश कर रहा हूँ जो कि मुझे व्हाट्स अप के माध्यम से मिला है। एक व्यक्ति एक फ्रीजर प्लांट में नौकरी करता था। दिन के अंत में वह एक तकनिकी  खराबी को ठीक करने के लिए फैक्ट्री के अंदर जाता है। काम में मग्न हो जाने के कारण समय का अंदाज़ खो बैठता है। उनके अन्य सहकर्मी काम ख़त्म होने पर घर के लिए रवाना हो जाते हैं। इस व्यक्ति को यह बात तब महसूस होता है जब अंदर की बत्ती बुझ जाती है और दरवाज़ा बाहर से बंद हो जाता है। फ्रीजर प्लांट के अंदर उसके लिए बर्फ का एक कब्र बन चुका था। सुबह तक जीवित रहने की सम्भावना ना के बराबर थी। ना के बराबर ना कि ५० -५० ? भाग्य उसका साथ देगा या नहीं ? दो -तीन घंटों के बाद उसे किसीके चलने का आवाज़ सुनाई पड़ा। उसे कुछ उम्मीद नज़र आई। कौन आ रहा था इस वक़्त ? चंद मिनटों के बाद प्लांट का गार्ड उसके सामने खड़ा था उसको बहार ले जाने के लिए ! ५० -५० प्रमाणित हो गया। इस व्यक्ति ने पहले ऊपर वाले को याद किया ,धन्यवाद कहा और फिर इस गार्ड से पूछा -"तुम्हे कैसे पता चला की मैं अंदर हूँ ?किसने तुम्हे मेरे विषय में बताया ?" गार्ड ने जवाब दिया -"किसी ने नहीं बताया। इस प्लांट में करीब पचास लोग काम करते हैं। केवल आप ही एकमात्र ऐसे हो जो कि सुबह मुझे गुड मॉर्निंग हो और निकलते वक़्त गुड बाई बोलते हो। आज सुबह आपने गुड मॉर्निंग तो बोला था परन्तु मैंने गुड बाई तो नहीं सुना था। जिसके कारण मुझे संदेह हुआ और मैं आपको ढूंढने निकला। " जैसे बादशाह ने अपनी किसी फिल्म कहा था -ऐसी बड़े -बड़े शहरों ऐसी छोटी -छोटी बातें होती रहती हैं। ज़िन्दगी में दरअसल ऐसी छोटी -छोटी बातें ही बड़ी -बड़ी घटना को प्रभावित करती हैं !
आपको यह लेख पसंद आयेगा या नहीं ५० -५० चांस है मेरे लिए। आप मेरे साथ फेसबुक के माध्यम से मिलेंगे या नहीं ; वह भी ५० -५० है। आज नहीं तो कल आप मिलेंगे यही ५० -५० का मजा है। खुश रहिए और ५० -५० को अपना लीजिए। जीने का अंदाज़ बदल जाएगा। मेरा बदल गया है।