गुरुवार, 3 नवंबर 2022

नमस्कार। पिछले महीने हमने बापू की चर्चा की और यह समझने का प्रयत्न किया कि बापू का सीखने के प्रति क्या अंदाज़ हुआ करता था। यह महीना है बच्चों के विषय में चर्चा करने का। आखिर १४ नवंबर बाल दिवस के तौर पर मनाया जाता है। आज हमारी चर्चा बच्चों पर होंगी। बच्चों के सीखने पर होंगी। 

कुछ वक़्त के लिए हम फ्लैशबैक  में चलते हैं अपने बचपन के दिनों को याद करते हैं। आपको कितने बचपन के विषय में याद है। मुझे पाँच  साल के उम्र वाली एक घटना याद है। जिस दिन मेरा स्कूल का सफर शुरू हुआ था। इतना रोया था मैंने कि मैं स्कूल में नहीं रहूँगा। घर वापस चला जाऊँगा। मुझे स्पष्ट याद है कि "सिस्टर" (हम मिशनरी स्कूल में टीचर को ऐसे सम्बोधन करते थे) ने मुझे गोद में उठा लिया और मेरे माँ को आश्वत किया कि आप घर चले जाईये ,चिंता मत कीजिये। तीन घंटो के बाद वापस ले जाईयेगा। 

मैं क्यों रो रहा था। अनजान जगह और अनजान लोगों से मैं डर गया था। मैं अपने कम्फर्ट ज़ोन के बाहर कम्फ़र्टेबल नहीं था। और हमने अपने भावनाओं को बिना किसी झिझक के ज़ाहिर किया। सिस्टर ने क्या किया ? उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जो कि उचित नहीं है। जैसा की हम घर में करते हैं रोते हुए बच्चों को फुसलाने के लिए। चॉक्लेट का प्रलोभन के साथ बच्चे को चुप कराने का सहारा लेते हैं। बच्चे को पता चल जाता है और वह रो कर चॉकलेट की माँग करता है। सिस्टर मुझे प्ले रूम ले गई। तरह तरह के 'नए 'खिलौने जो मैंने कभी नहीं देखा था। रंग बिरंगे खिलौने। कोई भी खिलौने को छूने में कोई बाधा नहीं थी। कुछ और बच्चे भी मेरी तरह रोने से मुस्कुराहट की ओर सफर कर रहे थे। मेरा दिल लग गया। आज जब सोचता हूँ यह समझ में आता है कि वह प्ले रूम सीखने का एक तरीका और माध्यम था। 

आज एडल्ट बन जाने के बाद यह महसूस होता है कि हम कई बार अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर नहीं निकल पाते हैं क्योंकि हमारे पास कोई सिस्टर नहीं है जो कि जबरदस्ती हमें उठा कर प्ले रूम में ले जाता है क्योंकि उस कम्फर्ट ज़ोन से निकलना हमारे फायदे के लिए है। हम सब को अपनी ज़िन्दगी में एक ऐसे 'सिस्टर 'की जरूरत है जो कि हमें कम्फर्ट जोन से निकलने में मदत करता है अपना सहारा दे कर। यह इंसान कोई भी हो सकता है -दोस्त , भाई ,बहन , माता , पिता ,बुजुर्ग , ऑफिस कॉलीग। 

पहले दिन स्कूल के छुट्टी होने के बाद जब मुझे वापस पिताजी और माँ के हाथ में सौंप दिया गया तब मुझे एक अद्भुत एहसास हुआ - मुझे लगा कि स्कूल का समय बहुत जल्दी समाप्त हो गया -और कुछ समय स्कूल में बिताने के लिए मैं तैयार था। समय होता ही ऐसा है -कभी हिलता नहीं है और कभी पता भी नहीं चलता कि कब ख़त्म हो गया है। एक उदाहरण स्वरुप आप सहमत होंगे कि जो सिनेमा दिलचस्प होती है 'तुरंत' ख़त्म हो जाती है और कुछ में हम सो जाते हैं। जिसमें हमें आनंद मिलता है ,समय यूँ बीत जाता है। अन्यथा घड़ी का काँटा हिलता ही नहीं है। 

दूसरे दिन क्या हुआ ? हमारे घर में एक 'मौसी 'काम करती थी जो कि मेरा देख भाल करती थी क्योंकि मेरे माता पिता दोनों नौकरी करते थे। यह मौसी मुझे स्कूल के लिए तैयार कर रही थी। और मैं अस्थिर हो रहा था क्योंकि मुझे लग रहा था कि मौसी कुछ ज़्यादा ही समय ले रही थी मुझे तैयार करने में। अगर मैं समय पर स्कूल ना पहुँच पाया तो क्या होगा ? दिल लग जाने पर हम वापस जाने के लिए आग्रही हो जाते हैं। क्या हम इस वक़्त अपने कर्मस्थान के विषय में उतना ही आग्रही हैं ? खुद को पूछिए। शायद नहीं। 

बचपन का एक और खासियत था निडरता -असफलता के प्रति। इसका सीधा प्रभाव था नए प्रयत्न करने में कोई हिचकिचाहट नहीं। लोग क्या कहेंगे इसका कोई डर नहीं था। जो अब बहुत अधिक मात्रा में दिमाग को नई ,अनजानी अनुभवों को प्रयास करने में बाधा पहुँचाता है। परन्तु हम सब के अन्दर वह बच्चा मौजूद है। उसको थोड़ा प्रोत्साहन दीजिए। अपनी निडरता के लिए। 

बचपन का एक और खासियत है उत्सुकता। किसी भी चीज़ के प्रति। और यही उत्सुकता हमें प्रोत्साहित करती है हमारी जिज्ञासा को। हम जानने की कोशिश करते थे। उम्र और जिंदगी के तजुर्बे की बढ़त के कारण हम या तो यह सोच लेते हैं कि हमें पता है या अधिक जानने की जरूरत नहीं है। यही चिंतन हमारे सीखने में बाधा बन जाता है। इसी कारण हमारे अंदर के बच्चे को मौका देना चाहिए ताकि हमारी उत्सुकता बरक़रार रहे और सीखना जारी रहे। 

कैसा लगा हमारा यह लेख वयस्क लोगों के बचपन के विषय में ? अगर आपके घर में बच्चे हों तो उनको प्रोत्साहित कीजिए नई चेष्टा के लिए। अपना निर्णय उन पर मत डाल दीजिये। दुनिया बदल रही है। परन्तु मन और दिल को बचपन का साथ निभाने दीजिये। आपको ज़िन्दगी से ज्यादा आनंद मिलेगा। जो कि हम सब चाहते हैं। सर्दी का मौसम का आनंद लीजिए और स्वास्थ का ख्याल रखिये। अगले महीने फिर मुलाकात होगी इस साल के अंतिम महीने में।