बुधवार, 2 मार्च 2016

"मेरे पास बिल्डिंगें हैं ,मकानें  हैं  ,गाड़ियाँ हैं ,तुम्हारे पास क्या है ?"कुछ क्षणों के बाद इस प्रश्न का उत्तर मिलता है। "मेरे पास माँ है। "
१९७५ साल में बनी दीवार फिल्म ने कम्युनिकेशन को एक नया दर्ज़ा दिया। सलीम -जावेद के लाजबाब डायलाग को ऐतिहासिक बनाने का श्रेय बॉलीवुड के सहनशाह के अभिनय क्षमता और कम्युनिकेशन स्किल्स , दोनों को प्राप्त है। अपने 'सहनशाह 'के ब्रैंडिंग तक पहुँचने में उनके कम्युनिकेशन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज और अगले कुछ मुलाकातों  में, मैं आपके साथ कम्युनिकेशन और उसका आपके अपने ब्रैंडिंग पर प्रभाव के बारे में चर्चा करूँगा । जैसा कि मैंने आपको पहले वादा किया था।
पिछले हफ्ते सहनशाह ने एक इंटरव्यू में आनंद फिल्म के शूटिंग के दरमयान डायरेक्टर हृषीकेश मुखेर्जी के एक सलाह का ज़िक्र किया है। कम्युनिकेशन में ठहराव का महत्व। 'मेरे पास माँ है ' के पहले कुछ क्षणों की ख़ामोशी के बिना कम्युनिकेशन का इम्पैक्ट नहीं बनता। ना कुछ बोलना कभी -कभी बहुत कुछ बोलने से भी ज़्यादा प्रभावशाली हो सकता है। अपने ब्रैंड को आगे बढ़ाने के लिए अपने कम्युनिकेशन में ठहराव को स्थान दीजिये और उसका प्रभावशाली उपयोग  कीजिये।
कम्युनिकेशन आखिर है क्या ? आज शुरू से हम कम्युनिकेशन , जो कि एक अंग्रेजी शब्द है , उसका प्रयोग क्यों कर रहें हैं ? हम उसकी जगह 'बातचीत' शब्द का इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहें हैं ? क्यूँकि सिर्फ बातें करना कम्युनिकेशन नहीं है।
कम्युनिकेशन को आप अच्छा या ख़राब नहीं बोल सकते हैं। कम्युनिकेशन या तो  'इफेक्टिव' है अथवा नहीं। कम्युनिकेशन तभी सार्थक या सफल होता है जब जिसके उद्देष्य से कम्युनिकेशन किया गया है ,वह इंसान या जानवर उसे उसी तरह से समझे जो कि कम्यूनिकेट करने वाले का मकसद है। घर में लोग पालतू कुत्ते को बुलाने के लिए अपने मुँह से कुछ आवाज़ करते  हैं  और कुत्ता अपना दुम हिलाता हुआ चला आता है। इस उदाहरण से यह प्रमाणित होता है कि कम्यूनिकेट करने के लिए आपको उस भाषा का साथ लेना पड़ेगा जो कि वह समझ सकता है जिसके साथ आप कम्यूनिकेट करना चाहते हैं।
भाषा के विषय में चर्चा करते हुए मुझे एक अनुभव  का ज़िक्र करना ज़रूरी है। एक अरबपति व्यापसायी ने मुझे एक बार उनकी कम्युनिकेशन को बेहतर बनाने में मदत करने के लिए बुलाया था। उनकी समस्या थी कि उन्होंने कभी ज़िंदगी में अंग्रेजी नहीं सीखी थी। जिसके कारण वाणिज्यिक सभा में उन्हें भाषण देने में हिचकिचाहट होती थी। मैंने उन्हें केवल यही समझाया कि सभा में लोग उनको उनकी व्यापसायिक सफलता के विषय में सुनने के लिए एकत्रित होते थे ना कि उनके भाषा के ज्ञान को सुनने के लिए। मैंने उन्हें हिंदी में भाषण देने में प्रोत्साहित किया। उसके अलावा मैंने उन्हें 'बोलने 'और 'कम्यूनिकेट 'करने के बीच क्या फर्क है समझाया। आज उनको एक प्रतिष्ठित वक्ता के हैसियत से लोग उनका सम्मान करते हैं। उनका अपना एक ब्रैंड बन गया है।
हमने इस उदाहरण से क्या सीखा है ? पहली बात आप अपना भाषण उस भाषा में रखो जिसमे आप सक्षम हो। दूसरी बात सरल शब्दों का प्रयोग करो। तीसरी बात अपने बोलने के रफ़्तार पर ध्यान रखो। इतना तेज़ मत बोलो कि आपके श्रोता को आपके साथ रहने में असुविधा हो या इतने धीरे मत बोलो कि आपको सुनने वालों को नींद आ जाये !चौथी बात सही भावनाओँ के साथ बोलो। नहीं तो लोग आपके साथ नहीं रहेंगे। और सबसे महत्वपूर्ण है कि आप उतना ही बोलो जितना ज़रूरत है। आपके भाषण के लिए निर्धारित समय में अपना व्यक्तव्य ख़तम करना एक अच्छे भाषण दाता का परिचय है।
कम्युनिकेशन का मूल मंत्र है कि आप जो बोल रहे हो ,वह महत्वपूर्ण है ;उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है आप उसे किस तरह या अंदाज़ से बोल रहे हो !
'कितने आदमी थे ?'- बोलने के अंदाज़ ने हमें गब्बर का चरित्र से मोहित किया। इसके आगे मैं क्या मिसाल दूँ आपको सचेतन करने के लिए ?
अपने बोलने के अंदाज़ पर गौर कीजिये। बोलते वक़्त भावनाओं का ख्याल रखिये। यह आपके ब्रैंड को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक कदम है। अगर गब्बर अपना ब्रैंड बनाने में सफल हो सका है ;आप कैसे सफल नहीं होगे?गब्बर तो विलेन था , आप तो हीरो हो !
खुश रहिये। अगले महीने फिर मुलाकात होगी आपके साथ  कम्यूनिकेट करने के लिए।
कैसा लगा ?मेरे साथ फेसबुक पर ज़रूर कम्यूनिकेट कीजिये। इंतज़ार करूंगा। 

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